ज़िन्दगी - एक संघर्ष की कविता
ज़िन्दगी - एक संघर्ष की कविता
मौत से हम रोज़ लड़ते रहे
रोज़ जीते रहे रोज़ मरते रहे
इस ज़माने से हमको खूब
शिकायत रही
और हम भी ज़माने को कुछ
खटकते रहे
हवा तेज़ थी, मुश्क़िल रास्ता भी था
पर तूफानों में भी दीये जलते रहे
वो सारा जहाँ घूम कर गए
और हम थे की घर से निकलते रहे
बिछड़ते दरख़्त से परिंदों की तरह
माँ के न होने से हम भी डरते रहे
सफ़र ज़िन्दगी का खत्म कुछ ऐसे हुआ
शाम दर शाम हम खुद में ढलते रहे
रगों में यूँ उतरे अश्क़ आँखों से होकर
की लहू बन के दिल में पनपते रहे
मेरी ग़ज़ल में भी वो मेरा ना हुआ
हर्फ़ दर हर्फ़ हम यूँ हाथ मलते रहे
ख़ुदा की रहमत इस कदर निभ रही
की पैर उसने दिए हम भी चलते रहे
जबसे सीलन लगी घर में तन्हाई की
दीवारों पर ग़म रोज़ उगते रहे
थी ख़बर हमको की बेवफ़ा है सनम
क्या करें हम फ़िर भी इश्क़ करते रहे
