मैं और तुम
मैं और तुम
एक ज़माना था जब तुम मुझे
छुप-छुप कर देखा किया करते थे
दरख़्त के पीछे खड़े होकर
लाल गुलाब का फूल दिखाया करते थे।
मुझे इशारे से दोनों भौहों को हिलाकर
मुझे चिढ़ाया करते थे
कभी बच्चो जैसा मुंह बिचकाकर
मुझसे खुद चिढ़ जाया करते थे
और मै दूर से तुम्हें देखकर
मुस्कराती रहती।
अपने जुल्फों को उंगलियों के पोरों से
गोल - गोल घुमाती रहती
तुम्हें देखकर फिर अपनी नज़रों को
तुमसे चुराती रहती।
कि तुम देख रहे हो या नहीं ऐसा सोच कर
झुका के पलकें शर्माती रहती
तुम ये सब देखकर मुझे दूर से ही नए - नए
सपने देखने को उकसाते रहते।
तुम गला फाड़ कर बेसुरी सी भी आवाज में भी
मेरे लिए हर नगमें गुनगुनाते रहते
मेरे दिल में रोज किसी न किसी बहाने से
अपने लिए जगह बनाते रहते।
और मै भी कुछ कम न थी
सब जान कर तुम्हें अपने करीब न आने देती
बेवजह ही तुमसे रूठ कर पुरानी गली छोड़ कर
नई गली से खुद को जाने देती।
अपनी सहेलियों से कर जिक्र तुम्हारा
बात - बात पर इक प्यारा नाम तुम्हारा आने देती
तुम्हारे हर शरारतों को याद कर
खिलखिलाकर हंस देती
तो कभी होकर उदास तुम्हारे साथ न होने से
छुप - छुप कर रो लेती।
शायद यही एक सच्चा वाला प्रेम था हमारा
जो हर मुश्किलों का एक खास था किनारा
सारे जहां में ये प्रेम था सबसे प्यारा।

