माटी का पुतला
माटी का पुतला
इस तमन्नाओं के शहर में
अपनों में भी वो बेगाना था,
उसकी खामोशी में क्यों शोर था
वो खुद भी कभी नहीं जाना था;
उसूलों पर चलते चलते
खुद ज़मींदोज़ होता रहा
उनसे भी मिला गर्मजोशी से
जिनसे वो अन-जाना था
वो कभी संभलता भी तो कैसे
उसके पीछे बैरी ज़माना था,
वो भटका होगा इसी ख़ातिर
उसे खुद ही संभल जाना था;
पलटकर देखा नहीं कभी वो
जो छूटा वो सब बेगाना था,
वो शांत मन इक देह को ढोता
बढ़ चला जहाँ उसे जाना था;
क्यों वो राख कुरेदता रहा
खुद के अंश की तलाश में,
क्या निशान छोड़ता आखिर वो
जिसे मिट्टी में ही मिल जाना था।
