मानवता के हिंसक
मानवता के हिंसक
बाहर जितनी सादगी, भीतर उतना काला ।
बोल मधुर रस घोलते, किन्तु कर्म विष- प्याला ।
पशुता का दामन लिए, मानवता के हिंसक,
प्रेम - अहिंसा मन्त्र की, फेर रहे हैं माला ।(1)
घृणा - द्वेष की हर तरफ, भड़क रही चिनगारी ।
किंकर्तव्यविमूढ - सी, दिखती जनता सारी ।
सम्बन्धों में आपसी, जंग छिड़ी है जब -जब,
दुश्मन ने है देश को, लूटा बारी - बारी ।(2)
आज अराजकतत्व कुछ, लेकर दहशत- दंगा ।
देशद्रोह का देखिए, नाच कर रहे नंगा ।
राष्ट्रप्रेम की भावना, और सभ्यता भूले ,
मटमैली करते दिखे, पावन यमुना - गंगा ।(3)
षड्यंत्रों के जाल का, बुनकर ताना - बाना ।
अपनों पर ही साधते, आदमखोर निशाना ।
दुर्व्यसनों में लिप्त हैं, ये व्यभिचारी दानव,
कब जाने ये क्या करें, इनका नहीं ठिकाना ।(4)
भारत का हर नागरिक, यह कर्तव्य निभाए ।
देशभक्ति की ज्योति का, घर-घर अलख जगाए ।
राष्ट्र विरोधी ताकतों, का सर ऐसा कुचलो,
फिर कोई गद्दार यह , चाल नहीं दुहराए ।(5)