माँ
माँ
माँ हमेशा समझाया करती है
अच्छे बुरे का फर्क दिखाती रहती है
पास बुलाकर, सामने बिठाकर
रोज समझाती रहती है, क्योंकि
माँ को तजुर्बा है
ये दुनिया भोले लोगों की नही
अपने सफ़ेद बालों के अनुभव साझा करती है
मेरे साथ कुछ बुरा ना हो,इससे वो डरती रहती है
बचपन में ये सब सुनकर गुस्सा आता था
आज वो सब साफ -साफ दिखता है
माँ की चिंता जायज थी
घर को चलाना, खाना बनना सिखाती रहती थी
जली हुई रोटी, हंस -हंस कर वो शौक से खाती थी
नमक कम या ज्यादा हो जाए वो फिर भी निगलती थी
कितनी भी पढ़ जाएँ बेटियां, घर संभालना पड़ता है
घर की जिम्मेदारी, मासूम कंधे पर उठाना पड़ता है
यही समाज की बनाई दस्तूर है,इसको मानने को हम मजबूर हैं
इन बातों की पुड़िया, माँ रोज खिलाया करती है
आज भी मायके जाऊँ तो माँ समझाती रहती है.