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Meera Ramnivas

Abstract Others

4  

Meera Ramnivas

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मां

मां

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माँ को लिख सकूँ

ऐसी कलम नहीं। 

माँ को कह सकूँ,

ऐसे शब्द नहीं। 

माँ थी तो एक दुनिया थी।

वो बड़ी प्यारी दुनिया थी ।

माँ वट वृक्ष थी, 

ममता की धनी छांव थी। 

मां से घर था, मां से पीहर था

माँ थी तो कदम, दौड़ कर

घर में घुस जाते थे। 

देहरी से ही

ममता की महक पाते थे।

अब तो देहरी पर ही,

ठिठक जाते हैं कदम,

आंखें भर आती है,

सताता है माँ के न होने का गम।


घर में रची बसी मां की यादें

अंदर बुलाती हैं, 

माँ की तरह ही आकर

मुझसे लिपट जाती हैं।

वैसे ही जैसे,

पहले घर पहुँचने पर ,

माँ लगाती थी

गले से जी भर।

बचपन में माँ 

मंदिर से मिला प्रसाद,

पल्लू में बांध,

मेरे लिए लाती थी।  

गुड़ घी रोटी,

चाव से खिलाती थी। 

किसी को जब माँ संग देखती हूँ, 

मैं खुद को अनाथ पाती हूँ ।

माँ की यादें अकसर आती हैं  

सहलाती हैं बतियाती हैं कहती हैं  

मैं कहीं नहीं गई हूँ, सदा तेरे साथ हूँ ।

तेरी हर आदत में हूँ, तेरी हर बात में हूँ ।


        



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