माँ की व्यथा
माँ की व्यथा
माँ का अपने बच्चे संग होता अनोखा बन्धन
जनम के पहले कोख से ही जुड़ जाता है रिश्ता
माँ की कही कहानियो को बातो को
वो तब से ही समझने लगता है
अपनी माँ की हर धड़कन
हर एहसास को समझने लगता है
माँ भी अपने बच्चे के हर
एहसास को समझ जाती है।
वक्त के साथ साथ जन्म के बाद ये
रिश्ता और भी गहरा होता जाता है
एक पल भी रह नही पाता माँ के बिना
माँ भी उसकी हर शरारत पर खिलखिला उठती है
चोट जो भूले से लग जाती है
उसके लाल को तो टेस बहुत उसे लगती है
ये रिश्ता है ही इतना प्यारा की
हर रिश्ते के सामने भारी है।
फिर क्यों वो ही बच्चे बड़े होकर
अपनी माँ की कुर्बानियो को भुला देते है
माँ को अपनी हर पल चोट क्यों देते हैं
और उनको वृद्ध आश्रम का रास्ता दिखाते हैं
क्यों नही उनकी उंगली पकड़ कर
उनका सहारा बनते हैं
ये कैसा कलयुग है आ गया माँ बाप का त्याग
करके बीवी का दामन पकड़ लेते है
एहसासों के इस रिश्ते को
क्यों ये बदनाम कर देते हैं।
