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प्रभात मिश्र

Abstract

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प्रभात मिश्र

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लत लग जाती हैं

लत लग जाती हैं

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शनै शनै, उसकी

लत लग जाती हैं

धीरे धीरे , वो

जीवन में बस जाती हैं

संंयमियों में भी

आदत बस जाती हैं

एक विहान से

गहन निशा तक

संंग आती हैं

शनै शनै, उसकी

लत लग जाती हैं

धीरे धीरे, वो

जीवन में बस जाती हैं

वार्ता से आरंभ हो मान मनुहारों तक

औपचारिक से शुरु

प्रेम व्यवहारों तक

हरेक कालखंड में

जैसे धंस जाती हैं

शनै शनै, उसकी

लत लग जाती हैं

अनुपस्थिति से विकल

स्थिति दिग्भ्रमित विहग सी

तृष्णा से विह्वल 

स्थिति मरु पथिक की

अव्यवस्थित सी

मनःस्थिति हो जाती हैं

शनै शनै, उसकी 

लत लग जाती हैं ।


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