"लोहड़ी की ज्वाला"
"लोहड़ी की ज्वाला"
हाला में था गरल किंतु
उर में उदग्धि पीत ज्वाला
पीत वर्ण में लालायित
नैनों में अधरित हाला
धूनी रमाये बैठी थी, वो
लोहड़ी की लकदक में
ऊष्णता की कांति बनकर
तपस्चर्या का श्रोत स्वयं
यतिशत द्यो का उद्भव
बनकर, बैठी थी वो
मुझे तपाने, सुख की वह्नी
तपकर, मुझे जलाने को
राख बनेगा ‘अज’ तू भी
यही बताने को तत्पर
श्रमकर, वो बैठी थी
निःस्वार्थ, उद्बोधित सी
मुस्काते अधरों में स्वीकृत
मौन मेरा अभिस्वीकृत हो
हे वैश्वानर, जातवेद, शुचि
पंचतत्व परिलक्षित हो
राग, द्वेष, सब जला रही
है, वो खाटों की लकड़ी में
और समन्वय बना रही है
लकदक और पिंजरों में
ऊष्ण भृत्ति उसकी द्यो
है, ज्वाला की धाती में
वही धधकती उच्छवासों में,
छाती में बनकर ज्वाला।
.....निशान्त मिश्र