लोग क्या कहेंगे
लोग क्या कहेंगे
कहना तो बहुत कुछ है इस ज़माने से, उलझें हुए हैं बहुत से धागे,
पर मन में हैं एक अजीब सी झिझक कि, “लोग क्या कहेंगे”।
इसी कशमकश में रह जाती हैं, उलझनें कई अनसुलझी सी,
इसी दुविधा में रह जाती हैं मन में, बाते कई अनकही सी।
“लोग क्या कहेंगे”? यह सोच सोच कर बर्बाद हो रही जिंदगियां,
“लोग क्या कहेंगे”? के डर से छिपा जाते हैं बड़ी से बड़ी गुस्ताखियाँ।
झूठी खुशियों का लबादा ओढ़ कर छिपाते गम, कि “लोग क्या कहेंगे”?
रखते अपनों का मान और हो जाते गुमनाम कि “लोग क्या कहेंगे”?
औरों के नाम की जपते रहते माला, लेकर हाथों में कंठी और माला,
अपनों के डर से लेते नहीं मुँह में, भूख में भी रोटी का निवाला।
यह कैसी विडम्बना मन की, यह कैसी पाल ली हमने मन में उलझन,
अपनों के डर से मन का न कर पाती, ससुराल में आई नई दुल्हन।
दिल पर पत्थर रख लेते हम, उफ़ भी नहीं निकलती जुबां से कि “लोग क्या कहेंगे”?,
पराये अपने न हुए, अपने बेगाने हो गए सोच कर कि “लोग क्या कहेंगे”?
“लोग क्या कहेंगे” के इस राग ने, रिश्तों में पैदा कर दी उलझनें अनगिनत,
“क्या करें और क्या ना करें”? इसी बात की चलती सदा दिमाग़ में कसरत।
बचपन से सीखा यही “यह कर, यह न करो” वरना “लोग क्या कहेंगे”,
पराया कोई कुछ नहीं कहता, अपने ही तो बातों का बतंगड़ करेंगे।
तन, मन, धन सब खो कर भी सोचते रहते “लोग क्या कहेंगे”?
ज़िन्दगी हो गयी दुष्कर सोच सोच कर कि “लोग क्या कहेंगे”?
लोगों का कोई काम नहीं, काम है तो बस कहना,
“लोग क्या कहेंगे”? बस इसी बात का रह गया रोना।
छोड़ दें मन से संसार की चिंता, करें अपने आप से गुफ्तगू,
अपने मन की खुशियों के लिये जीयें, खुद से हो जाएँ रूबरू।
मत सोचो इतना भी जीवन में कि “लोग क्या कहेंगे?”
पहले दिन कहेंगे, दूसरे दिन खिल्ली उड़ाएंगे, फिर सब भूल जाएंगे।
मत पड़ो इस वाद विवाद में कि “लोग क्या कहेंगे”?,
आज कहेँगे, मज़ाक उड़ाएंगे, कल फिर कुछ नया राग अपनाएंगे।
“लोग क्या कहेंगे” की झूठी आड़ में, क्यों जीना भूल जाते हैं लोग,
“लोग क्या कहेंगे” की उलझन में, क्यों पाल लेते हैं हम मनोरोग?
“सुनो सबकी, करो अपने मन की”, जीवन का अगर हो यही मूलमंत्र,
अपने वश में हो अपना जीवन, औरों का हट जाएगा परतंत्र।
