ज़िन्दगी
ज़िन्दगी
हम मौत से हैं डर रहे,
जी ही हम रहे थे कब?
हम तो कल के खौफ़ से
बिगाड़ते जा रहे, जो सही है सब।
हम रिश्तों की गांठ को
मरते दम तक नहीं समझ पाते हैं,
हम अपनों से विमुख होकर
दूसरों के हो जाना चाहते हैं।
हम कसमें साथ देने की
बड़ी जल्दी खा लेते हैं,
हम जीवन-अमृत को छोड़
पूरी ज़िंदगी चिंताओं में जी लेते हैं।
हम जीवन का हर अंश
कल की फ़िक्र में बिता देते हैं,
हम अपनी गलतियों का एहसास न कर,
दूसरों के खिलाफ़ फ़ैसला सुना देते हैं।
और सोचो, फिर ये रिश्ते क्यों न उलझे
ये पहेलियाँ सुलझाये न सुलझे,
हम रहते आँसुओं से सने
कट जाते हैं सबसे पक्के मांझे।
रात अक्सर यादों की होती है
पर जो पास है, उसके फ़रियादों की नहीं,
ये कैसे समय की रेत है
जो पकड़ते ही है फिसल जाती?
ये कैसा लोगों का व्यवहार है
अधिकतर ईर्ष्या और दुर्भावना है,
पृथ्वी पर स्वर्ग बनाना
शायद बस एक ख़्वाब है।
हे ईश्वर, सबके सहायक,
हमें ये वरदान दीजिए,
हमें मधुर वचन और सत्कार्यों को
संपादित करने के समर्थ बना दीजिए।
यह ज़िंदगी पुकारता अपनी इस दौड़ में,
चुनौती खड़ी है जहाँ हर एक मोड़ में,
हे प्रभु, दे आशीष, खुद को न हार बैठे,
सफ़ल होने की इस होड़ में।
