लिखने चला जो माँ को .....
लिखने चला जो माँ को .....
हाथों को जोड़कर
शीश को झुकाकर,
लिखने चला हूँ माँ को
मैं कलम को उठाकर...
शब्दविहिन हो गया
खोलूँ क्या अब जुबां को,
ख़ाली कागज़ रह गया
लिखने चला जो माँ को...
शब्दों के ढेर में
शब्द वो गया कहाँ?
कवित्व मेरा रह गया
धरा का धरा यहां...
विचारों में बंधने
चला था जो समां को,
चुप होकर रह गया
लिखने चला जो माँ को...
वर्षों के सुनसाने में
प्यारी सी गूँज है, माँ...
कभी ममता की ज्योति,
कभी तेज़ प्रकाश पुंज है, माँ ..
नमन ही है श्रेष्ठ
उस अविनाशी रूप क्षमा को,
कागज़ जल कर रह गया
लिखने चला जो माँ को...
बच्चों की झोली को
ऊपर तक भरती माँ,
चीरकर खुद को देती अन्न
नमन तुझे ए धरती माँ ..
नमन उस शक्ति
जन्मदायनी महां को,
नमन ही करता रहा
लिखने चला जो माँ को...
मौन ही रहा वहां
खोल सका ना जुबां को,
माफ करना मुझे
लिखने चला जो माँ को....