लाल-आकाश सुनहरी-धरती
लाल-आकाश सुनहरी-धरती
लाल सूरज के आकाशीय कैनवास के नीचे,
सुनहरी रौशनी दीपकों जब कहीं लहराती है।
प्रकाश और समृद्धि में गढ़े मोरपंखों की दुनिया,
सारी प्रकृति के इक रहस्य को फुसफुसाती है।
स्वर्णरंगीय गंगा में स्नान करता हुआ क्षितिज,
स्वप्न में दिखती कहानी सा होता है वह प्रतीत।
अनंतता तिमिर की, न सके गा, न सके नाच,
मन की श्वेतवर्णीय किरणें दीवाली को बहा लाती है।
शांत चांदनी में नहाया, आकाश कितना प्रसन्न होगा,
दर्पण में देख के उम्मीदें, अन्धेरा प्रकाशमय होगा।
इक लय पक्षियों के स्वर में, धुन जिसकी इक गीत बनी,
उड़ान मन से मन तक की, मन ही को तो दर्शाती है।
शाम की झिलमिलाहट में, मिले जो गर राह हमें,
दिल के हर कोने में, प्रेम-करुणा की लौ जले।
टिमटिमाते दीयों सी, जगमगाती आत्म-रोशनी,
दूर जो निराशा हो, सपनों को शुद्ध कर जाती है।
हर शाम हमारी, यूं ही उज्ज्वल हो, यूं संजोएं,
हो सद्भाव से एकजुट हम, बीज खुशियों के बोएं।
कोमल मन - कोमल आलिंगन, बचपन जो भरे उड़ान,
ज्वल-उज्ज्वल के दृश्य की शाम नव दिवस को हाथ बढ़ाती है।