क्यों
क्यों
हर ज़र्रे को हक है जीने का
और जीता भी हर कोई है,
पर फिर भी ये घुटन क्यों है?
क्यों फूल खिलना भूल गए हैं,
क्यों हवाओं मेंं अमनेपन की खूशबू नहीं है,
क्यों हर शाख समय से पहले ही झुक गई है,
क्यों इंसा का सकूं आसमान को ताकता है,
क्यों उस की बेचैनी जान की दुश्मन बन गई है,
क्यों गिन्नियों में अपनी मुस्कान ढूढता फिर रहा है,
क्यों तन का सुख बत्तीस दाँतों मेंं दब कर रह गया है।
क्यों दिल पर लाखों ताले लगाये पड़ा है,
क्यों आँगन मेंं चाँद -तारे झाँकते नहीं हैंं,
क्यों चारपाई पर लेट तारे गिनता नहीं है,
क्यों गमिर्यों में बर्फ के गोले खाता नहीं है,
क्यों सर्दियों मेंं अपनों के साथ हाथ सेकता नहीं है,
क्यों बारिशों मेंं कागज़ की कश्ती छोड़ता नहीं है,
क्यों इन छोटे-छोटे पलों का आनंद उठाता नहीं है।
क्योंकि
तू कलयुग का सिर्फ कल-पुर्जा बनकर रह गया है।