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Vivek Sehgal

Abstract

4.5  

Vivek Sehgal

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क्यों मन को चैन नहीं ?

क्यों मन को चैन नहीं ?

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ज्वलित कर ज्योति आँगन में,

वृंदा के पाँव में स्वर्णिम पायल चमक उठी,

पत्तों को किस्से सुनाये की कैसे संध्या हो आयी, 

दो उज्ज्वलित दरबान किवार पर खड़े किये,

एक बहती सुधा में पिरो दिए,

घाट पर एक,एक गीली सीढ़ी पर,

दो ठाकुरबाड़ी में सुसज्जित किये,


दीप आमले और अमलतास के निचे भी रखे,

घर में आकर, दिन के काम काज सब करके,

बैठी मन में बुनती हूँ,

सिसक मन की ज्वाला की अभी भी काम न हुई,

अभी भी बिस्तर की सिलवटों में दर्द भरा है,

दर्पण में अतीत का रिंगन हैं,

वस्त्रों में टीस की गंध,


'द्युति से सोम' में भिगा घर का आँगन अब भी सूखा है,

मैले कर पाँव दिन भर अब दुखने लगे हैं,

स्वांस भी ठंडी होती ज्योत सी सिहर उठे हैं,

अँधेरे का पर्दा गिर पढ़ा है,

अकेला मन अब बिखर चला है,

यूँ ही कैद सिलवटों में,


अब कितने दीपक प्रज्वलित करूँ ?

क्यों मन में चैन नहीं ?

क्यों सांसें ठंडी हैं ?


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