क्यों बच गयी मूर्ती मेरी केदार में
क्यों बच गयी मूर्ती मेरी केदार में
कभी प्रकृति के तांडव ने
कितना कुछ तोड़ा संसार में।
कितने बिछ गए, कितने रह गए
मृत्यु के भीषण हाहाकार में।
ओ ईश्वर! ये कैसी है लीला
कितनों को जल ने है लीला।
तेरे दर्शन को प्यासे भक्त
क्यों ना पहुंचे अपने घर-बार में।
बस तेरे इशारे से ही हिलता
इस जहाँ का इक इक पत्ता।
फिर क्यों इतने अनाथ हुए,
ये बच्चे-बूढ़े तेरे ही दरबार में।
शिव ही सत्य है शिव ही शाश्वत
शिव ही वेद और शिव ही भागवत।
शिव की भक्ति जीवन दायिनी
फिर बह गये कैसे काल की धार में।
जी जाता है गणेश जो कट जाए सिर
जो मरे केदार में तेरे ही बच्चे थे फिर।
हे शिव! भक्ति कौन करेगा,
जब भक्त ही न रहेंगे इस संसार में।
रौद्र है, तू ही भोला, तू ही तो विधान है
तेरे नयनों में बता क्यों अश्रु अंतर्धान है।
भजनों की छिन गयी वाणी और,
बहा हाथों से लहू तेरे नमस्कार में।
कब तक रहते चुप अब तो शिव भी बोले,
मैं हर क्षण रोता हूँ संग मेरे तू भी रो ले।
मैं भी काल का ग्रास हुआ हूँ,
साथ उनके जो मिल गए निराकार में।
बस मेरे नाम के मोह में पड़े हो
सच्चे और दुखियों से दूर खड़े हो।
भूखों को देते नहीं एक अन्न का दाना,
पकवान रख देते हो मेरे सत्कार में।
क्यों लड़ते हो तुम मेरे ही नाम के लिए,
मुहम्मद के लिए तो कोई राम के लिए।
क्यों नहीं सुनते मेरी चीख को,
हर इक बच्चे की चीत्कार में।
माता-पिता को बड़ा बोझ जान के
क्या पा लोगे ईश्वर को मान के।
क्षीण कर दी मेरी ही शक्ति,
जो मैं बस गया ऐसे संस्कार में।
प्रकृति से कितनी खिलवाड़ करते,
मन में फिर अंधविश्वास को भरते।
वृक्षों को भेदा, वायुमंडल को छेदा
ऐसे बढे हो अपने आत्मोद्धार में।
वायु भी प्रदूषित है, दूषित है जल भी,
तरंगे मंडल में, बारूद भरा है थल भी।
नियंत्रण किस स्थान पर मेरा है
तुम्हारे इस संसार में।
क्रिया-प्रतिक्रया का ही बस खेल है सारा,
याद करो कितने दिलों को तुमने मारा।
दया, धर्म और प्रेम बह गया
मोह, लोभ और काम के विकार में।
मैं तो बसा हूँ सृष्टि के हर इक कण में,
एक बार तो देख रहता हूँ तेरे ही मन में।
भूल ना करो स्वयं को मानव जान कर,
लाओ तुम मुझे अपने व्यवहार में।
हर इक के दुःख में त्रिनेत्र रोते हैं मेरे,
अपनों को स्नेही जब खोते हैं मेरे।
जो हो चुका इतना असंतुलन तो,
क्यों बच गयी मूर्ती मेरी केदार में।