क्या बोलूं
क्या बोलूं
क्या बोलूं मैं जब हारा तन है
मन की कैसे करूं जब खारा मन है
जब मैं सोना था किसी की जुबां का,
फिर वक्त ढलते ही कांचा कब हो गया ?
मेरी शायरी गुनाह कैसे हो गई ?
उसको खूब पढ़ा, तभी तो लिखा !
पतझड़ को जिया, तभी तो बसंत दिया...!
उसने हालातों के नारों से जंग जीता था,
हमने तो हर वक्त एक ही नारा कहा था,
जहां हर मौसम कुछ कष्ट कभी रहा था
लेकिन, हर एक पल ढेरों खुशियां भी थी,
मरते जहान में जीने की ढेरों कशिश थी
हमने झूठे वादों से मोहब्बत नहीं जीता था।
हमने जो गुलदस्ता दिया था वो चमेली का था
अब बात अलग है कि मेरी चमेली को,
अवसरवादी दुनिया में साधारण बोल रहे हो !
पर, जब जीवन उनके दुर्गंध के गिरफ्त में था,
जिसे वह साधारण सा चमेली बोल रहे हैं...,
कभी वही उनके जीवन में सुगंध भरा करता था !
क्या बोलूं मैं जब हारा तन है;
मन की कैसे करूं जब खारा मन है !!
कभी फुर्सत मिले तो उन्हें भी पढ़ना,
अगर हिम्मत जुटा सको तो,
जो जीते जी मधुशाला हो गए,
मधु पीने वालों की हाला हो गए !
क्या बोलूं मैं जब हारा तन है;
मन की कैसे करूं जब खारा मन है ।