कविता
कविता
नयन खोल देख की तिमिर,
घनेरा था छट गया
सूर्य दीप्तिमान हो रहा,
तिमिर पीछे हट गया
तमस था सारा छट गया,
भानु यह बतला रहा
साथ चलने को मनुज के,
नव सबेरा ला रहा
जाग चल लड़ बढ़ो आगे,
स्वपन सब सच कर दिखा ।
हे मनुज संताप सारे,
सतकर्म को कर मिटा।
वीरता की आयतें अब,
तू नवेली गड़ जरा।
रास्ते मे रिपु के बन कर,
सैल समान अड़ जरा।
अब काल के भी भाल पर,
तिलक शोणित से लगा।
निज प्राण की बाती बना,
रक्त से दीपक जला।
जमाने को भुलाकर के,
आज रण में लड़ जरा।
मोह प्राणों का त्याग कर,
आज रण में बढ़ जरा ।
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जो ले सको प्राण रण में,
तुम दनुज के लीजिए।
कर्तव्यों की वेदी पर,
या निज प्राण दीजिए।
सिर अपना महादेव की,
माला बना दीजिए।
रण की माँ रणचंडी का,
साज ख़ू से कीजिये।
सत्कर्म निष्ठा से सदा,
वीर खुद को तारते।
धर्म शस्त्रों से ही सदा,
शत्रु को संघारते।
शीश वीर के रणभूमि में,
भले कटते रहे।
तन पर शीश नहीं तो क्या,
कटे धड़ लड़ते रहे।
देश के हित के लिए जो,
कोई लड़ेगा यहाँ
वो मरकर भी नाम अमर ,
अपना करेगा यहाँ
इतिहास नाम उसका,
स्वर्णिम लिखेगा यहाँ