कविता
कविता
'विस्तृत धरा-सा'
तेरी निश्छल हँसी / आज कुछ कह गयी / अन्तर्मन को छू गयी /
साँसों में मिल गयी / शांत-सदया प्रकृति-सी ढल गयी /
आत्मा में तेरे शब्द उतर गये / सीधे वहीं बस गये /
इसे प्यार कहें या अन्तर्मन का लगाव / जुड़ गये हृद्तन्त्री के तार औ' भाव /
प्यार तो बस प्यार है / जो साँसों को छूता है / देह का भान नहीं रहता /
अदृष्ट आत्मा से जुड़ता / वह जितना ही सूक्ष्म / उतना ही विस्तृत धरा-सा ।