कविता की यात्रा
कविता की यात्रा
बचपन मे मैंने भी कविता लिखने की एक कोशिश की थी
कविता को शीर्षक भी दिया था.....
बचपन की मासूमियत शब्दों से क्या खेलती?
तो कविता शुरू होनेके पहले ही ख़त्म हो गयी
थोड़ी बड़ी होने पर फिर लफ़्ज़ों के साथ खेलना शुरू किया
चंद ही पंक्तियाँ लिख पायी.......
लफ़्जों के साथ साथ मै अब भावनाओं से भी खेलने लगी
और फिर कविता लिखते हुए लफ्जों को जोड़ने तोड़ने लगी
उस लफ़्ज़ों की जोड़ तोड़ को कैसे कोई कविता कह सकता है?
लफ़्ज़ों में जब कोई नशा घुल जाता है तभी कोई कविता बन जाती है
वह कविता फिर शबद बन गुरुद्वारों में गूँजने लगती है
तो कभी ग़ज़ल बन कर महफ़िल में गुनगुनाने लगती है
कभी कभी कविता कविता न होकर अवाम का गीत बन जाती है
उनके दिल दिमाग पर छा कार अवाम की आवाज बन जाती है
अवाम की आवाज़ को बुलंद कर कविता हुक्मरानों की नींद उड़ा देती है
उस दमनतंत्र के ख़िलाफ़ कविता चट्टान बन खड़ी हो जाती है......
