कविता की राम-कहानी
कविता की राम-कहानी
तुम मुझे देखकर सोच रहे, ये गीत भला क्या गाएगा
जिसकी खुद की भाषा गड़बड़, वो कविता क्या लिख पाएगा
लेकिन मुझको, नादान समझना ही तेरी नादानी है
तुम सोंच रहे होगे, बालक ये असभ्य, अभिमानी है
मैं तो दिनकर का वंशज हूँ, तो मैं कैसे झुक सकता हूँ
तुम चाहे जितना जोर लगा लो, मैं कैसे रुक सकता हूँ
मेरी कलम वचन दे बैठी मज़लूमों, दुखियारों को
दर्द लिखेगी जीवन भर, ये वादा है निज यारों को
मेरी भाषा पूर्ण नहीं और इसका मुझे मलाल नहीं
अगर बोल न पाऊँ, तो क्या हिन्दी माँ का लाल नहीं
पीकर पूरी "मधुशाला" मैं "रश्मिरथी" बन चलता हूँ
"द्वन्दगीत" का गायन करता "कुरुक्षेत्र" में पलता हूँ
तुम जिसे मेरा अभिमान कह रहे वो मेरी "हुँकार" मात्र है
मुझे विरासत सौंपी कवि ने वो मेरा अधिकार मात्र है
गर मैं अपने स्वाभिमान से कुछ नीचे गिर जाऊँगा
तो फिर स्वर्ग सुशोभित कवि से कैसे आँख मिलाऊँगा
इसलिए क्षमा दो धनपति नरेश! मैं कवि हूँ व्यापर नहीं करता
गिरवी रख अपना स्वाभिमान, धन पर अधिकार नहीं करता
हिन्दी तो मेरी माता है इसलिए जान से प्यारी है
मैंने जीवन इस पर वारा और ये भी मुझ पर वारी है
देखो तो मेरा भाग्य मुझे मानवता का है दान मिला
हिन्दी माँ का वरद-हस्त और कविता का वरदान मिला
मेरा दिल बच्चे जैसा है, मैं बचपन की नादानी हूँ
हिन्दी का लाड़-दुलार मिला, इस कारण मैं अभिमानी हूँ
हरिवंश, सूर, तुलसी, कबीर, दिनकर की मिश्रित वानी हूँ
कुछ और नहीं मैं तो केवल कविता की राम कहानी हूँ...