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Mayank Kumar 'Singh'

Abstract

5.0  

Mayank Kumar 'Singh'

Abstract

कवि की वेदना

कवि की वेदना

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कवि हूँ उत्साह से कहता हूँ

रास्तों से बेफिक्र गुजरता हूँ

भ्रमण सभी के दिलों में करता हूँ


फिर पथ कैसा ?

अपने में चलता रहता हूँ

दिल के कमरों में

किसी का इंतजार करता हूँ

बिना सोचे भाव व्यक्त करता हूँ

अरे ! कवि हूँ भाई इसलिए कहता हूँ ।


शब्दों के मेले में करुणा खरीदता हूँ

अपने जीवन में वेदना खरीदता हूँ

बिना सोचे अपमान करवा लेता हूँ

जीवन के मंच पर पागल बन बैठा हूँ

सतरंगी दुनिया को दृढ़ता से समझा हूँ


हर चांदनी में एक फूल खिला देता हूँ

अरे , कवि हूँ भाई इसलिए कहता हूँ ।


पाषाण को कल्पना से मिट्टी बनाता हूँ

शब्दों को कहीं भी व्यक्त कर देता हूँ

हर अमावस में न जाने कितने चांद खिलाता हूँ

हर प्रेमी को शब्दरूपी आंगन में नचाता हूँ


हर मीरा को कृष्ण से मिला देता हूँ

हर बंजर जमीन पर फसल उगा देता हूँ

सिसकते बालक को कभी भी हँसा देता हूँ

अरे , कवि हूँ भाई इसलिए कहता हूँ ।


कभी अपने पाँवों को लड़वा देता हूँ

अंगूठे को उंगलियों से ठनवा देता हूँ

इससे अपने में ही फंसता रहता हूँ

लेकिन लोगों को हंसा देता हूँ ।


भावों के रस में कीड़ा किया करता हूँ

तुलसी के ज्योति में रोज जिया करता हूँ

राम - रावण बन शब्दों के युद्ध लड़ा करता हूँ

अरे , कवि हूँ भाई इसलिए कहता हूँ ।


रोज आलोचना का कफ़न बांधे घूमता हूँ

हर एक पल जो संवेदनशील रास्ते से

निकलता हूँ

किसी आँसू को अपना बना लेता हूँ

हर दुखी के हृदय में वास किया करता हूँ


संसद की गलियों में कविता लिखा करता हूँ

रोज कई विधेयक की मार झेला करता हूँ

राजनेता की ललकार रोज सुना करता हूँ

अरे , कवि हूँ भाई इसलिए कहता हूँ ।


पतंगों की छांव में रोज आश्रय लेता हूँ

इससे दुनिया से रोज कटा रहता हूँ

शब्द की उड़ान भर मन थिरकता है

फिर कोई पतंग इसे काट दिया करता है !


फिर मेरी कविता धरातल पर गिरती है

लूटने वालों की झड़ी लग जाती हैं !

इसे लूट कोई प्रसन्नता से लहसा हैं

मैं अपनी मंजिल को थामे निकल जाता हूँ

अरे , कवि हूँ भाई इसलिए कहताहूँ ।


अपने व्याकुलता से रोज जला करता हूँ

अपनी मुस्कान से हर एक दुख दवा लेता हूँ

उड़ते बाजो से रोज खेला करता हूँ

दृढ़ होकर पंखों की मार सहा करता हूँ


इतने कर्तव्य देख कोई मुझ पर हंसता है

मैं उनकी हंसी देख प्रसन्नता से चलता हूँ

उनकी मुरखीत मुस्कान को लाठी बना लेता हूँ

अरे , कवि हूँ भाई इसलिए कहता हूँ ।


कभी मैं मदिरालय में घर बना लेता हूँ

शाम की जाम में कविता परोसा करता हूँ

मंत्रमुग्ध होकर पीता , पिलाता हूँ

अपने हृदय को रौंध लिया करता हूँ !


प्रेमी-प्रेमिका के हृदय को जोड़ा करता हूँ

किसी मतवाले को बेफिक्र जाम दिया कहता हूँ !


हर दृढ़ योद्धा का तलवार बना करता हूँ

अरे , कवि हूँ भाई इसलिए कहता हूँ !


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