कवि की ऊँची उड़ान
कवि की ऊँची उड़ान
"कवि' अपने नाम के आगे जोड़ इठलाते हो
कवि का अर्थ भी क्या (?) आप जान पाते हो
मैं अकिंचन- एक कवि पुत्र हूँ, कवि नहीं
कवि कुमार है पुकार नाम, यही समझें सही
कवि सत्यार्थी, सत्यद्रष्टा बन सृजन करता है
लकिरें उकेर कवि, प्रभु के गुण-गाथा गाता है
हिमालय सम श्याही की टिकिया गर उपलब्ध हो
क्षीर सागर सम दवात में घुल लेखन हेतु साथ हो
धरा-धाम संपुर्ण, प्रशस्त भोजपत्र भांति प्रस्तुत हो
स्वर्ग के पारिजात की टहनियाँ सारी- कलम बन तैयार हों
माँ सरस्वति स्वयम् कवि में लीन- प्रभु-चित्रण करती रहे
वर्णातीत के गुणों को अनवरत लिपिबद्ध करती हीं रहे
विद्या की देवि अंतत: थक -करबद्ध हो, शीश नवायेगी
सामर्थ्य की सीमा पार- नहीं लेखनी अब लिख पाएगी
"असितगिरिसमं स्यात् कञ्जलं सिन्धुपात्रे
सुरतरुबरशाखा लेखनी पत्रमूर्वी:
लिखति यदि गृहीत्वा सारदा सर्वकालम्
तथापि तव गुणानामीश पारं न याति"
उपरोक्त श्लोक शिव के कवि पद्मदन्त से
अपने उपर एक कविता लिपिबद्ध किए,
भक्तगणों द्वारा किए गये आग्रह के प्रत्युत्तर
में कह सुनाई, अर्थात ईश्वर- ''काव्यातीत'' है
कंकड़-पत्थर से हीं वृहत् सेतु बन पाता है
आशाओं से कोई वीर कर्मठ बन पाता है
वीर मात्र पथ पर अग्रसारित हो बढ़ जाता है
नैराश्य से बोझिल पथिक तो अटक- जाता है
वह कौन (?) है जो दीर्घा से झाँक रहा है
कातर स्वर- ''त्राहिमाम्'' स्वर आ रहा है
उसकी पीड़ायें चक्षुओं में स्पष्ट दृष्टव्य है
अभिव्यक्ति की आकुलता तीव्र-प्रबल है
विह्वल मन में अनन्त एषणाओं का ज्वार भरा है
असुरक्षित अस्तित्व उसका- अतिशय क्लांत है
नहीं कोई संबल उसका, न दिख रहा कोई साथ है
अकिंचन-असहाय-क्षुब्ध वह शायद एक बटोही है
कंटकाजिर्ण मार्ग, दुर्गम- वक्र- बिहंगम- अपार है
होने को है गोधूलि, नहीं यह अरूणिमा- सुप्रभात है
अन्तरतर में संभवतः गहरा पैठ- झाँक-ताक किया है
ज्योतिर्मय आभावान् मुखारविंद- गोचर समक्ष है
त्वरित गति से उत्साहित- उत्ताल लहरों में कूद पड़ा है
अथाह है समुन्द्र- परन्तु गंतव्य पार का संकेत मिला है
आरोपित संस्कारों से पठन-पाठन में दक्ष हो,
बुद्धिजीवी कोई विरला हीं महान बन पाता है
कुछेक लकिरें उकेर, कवि सहज कोई न बन पाता है
'जन्मजात संस्कारों' की पोटली गर्भ से साथ आती है
परिपक्व हो मचल-उछल ज्ञान अभिव्यक्त करती है
कवित्व स्फुटित-स्फुरित हो, निखर सृजन करता है
आलोचना नहीं विवेचना हीं कवि का संबल होता है
कवि गोष्ठियों में सृजन शक्ति का परिमार्जन होता है
कल्पना जगत का पथिक, अनवरत सृजन वह करता है
"जाति-भाषा-सिमाओं" के 'चक्रव्यूह' से विलग रहता है
धन्य-धन्य हे कवि तू विशुद्ध चक्र शोध कर विचरता है
जन हित में आहुत कवि श्रेष्ठ कांत सृजनकर्ता बनता है
टूटी दीवारों को कवि क्योंकर (?) तुम देख लिखते हो
खण्डित मिनारों- चट्टनों को नाप- माप लिखते हो
हिम्मत और हौसला है तो दिल में रे अब ले झांक,
टूटा दिल क्यूँ (?) नहीं मिल-जुल जोड़ जीते हो।
