गंगा स्नान कर
गंगा स्नान कर
धुलते नहीं पाप, महाकुंभ, काशी; जम-जम जा कर।
धुलते जाते हैं पाप, प्रायश्चित कर सत्पथ अपना कर।
भूल-चूक, जाने-अनजाने मानव से हो सकती है।
चलते धार्मिक सदा, सुधार का पथ अपना कर।।
मीठा जल गंगा का उद्गम में, खारा सागर से मिल होता।
बीज बबूल का बोए तो, आम का पेड़ कहां (?) से होता।
धुलते नहीं पाप, लाख भले तीर्थ पापी तुम करलो।
मन का है भ्रम, पठारों में हलाहल ही भरा होता।।
धुलता नहीं पाप, बार बार गल्तियों को दुहरा कर।
सेहतमंद होगा कैसे, तामसिक भोजन अपना कर।
पाप पुण्य का सारा खेल, वृत्तियों के सहारे चलता।
उर्ध्वगामी होते साधक सेवा एवं त्याग अपना कर।।
धुलते नहीं पाप कभी, तीर्थंकर तक बन कर।
निरस्त होते श्राप, दुष्टात्माओं से निकल कर।
परोपकार कर, अहित स्वप्न में भी मत कर।
गलत हुआ हो तो, उसका मन से कर सुधार।
इंद्रजीत बन, मत अगराना, पोथा पढ़ कर।।
