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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract Tragedy

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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract Tragedy

कुदरत का कानून

कुदरत का कानून

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कुदरत का बस यही कानून है

हम सबके इसके आगे न्यून है

जैसा यहां लोग विचार करते है

वैसा ही बनता उनका खून है


जिसका होता जैसा जुनून है

वो वैसी ही पीता दरिया बूंद है

कुदरत का बस यही कानून है

अपनी ही करनी देती सुकून है


खुद के किये बुरे कर्म हमारे,

उड़ाते यहां पर हमारी धूल है

गर हम कर्म करेंगे, जैसे फूल है

फिर पाएंगे कभी न, हम शूल है


स्वेत बूंदे बहाती नदिया दूध है

जो लोग पीते, दूसरों का खून है

वे पाते कर्म हिसाब इसी जून है

खुदा देता न गंजे को नाखून है


राम जी किसी को नहीं मारते है

मारती व्यक्ति को खुद की भूल है

मिलती उसे बस जूतों की धूल है

जो झूठ को बनाते, पेड़ शहतूत है


कहता साखी, कोई नहीं महफूज है

यह सारा जगत एक उल्टा बबूल है

कुदरत का कानून ही बस मूल है

इसके बने ही चलते सब वसूल है


जो यहां पर सत्यकर्म में मशगूल है

रब सामने करता, कमियां कबूल है

पाता बस वो ही छत्र-छाया रसूल है

वो ही चमकते खिलखिलाती धूप है


समझा जिसने भी कुदरत कानून है

पाया उसने ही बस ख़ुद का वजूद है

वही धूल बनती यहां पर कोहिनूर है

जिसके भीतर जिंदा कुदरती नूर है।



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