STORYMIRROR

Niva Singh

Tragedy

3  

Niva Singh

Tragedy

कुचला आत्मविश्वास

कुचला आत्मविश्वास

1 min
303


           

तालाब की गहराइयों से निकली

बुलबुले सी थी मैं

जो आँखों में चमक लिए मंज़िल को

निकली थी मैं

सोचती थी संसार इंसानियत की मूर्त है

फिर नजर पड़ी शैतानों की

और डूब गई नईया इंसानियत की

फिर अंधकार का चादर लिए घिर

गया संसार

काले चादर ने ओढ़ लिया ये आसमां

ये जहां


निर्वस्त्र किया मेरे रुह को मेरी आत्मा

को

चिखें गूंजती रही मेरी जहां में

उस हवस में मेरे आँसू की अविरल

धारा बहती रही

और वो पिघलती रही जली

मोमबत्ती

की भांति

अंदर की लौ डगमगाती रही


आखिर आत्मा ने धारण किया मौन को

मैं नहीं मेरा पार्थिव बयां कर रहा है

कि ये संसार ये दुनिया, दुनिया नहीं

दरिंदों और दरिंदगी का झुंड है

समय चलती जाएगी मोमबत्तियाँ

बूझती जाएगी

और तुम्हारी अश्रु धाराएं, तुम्हारा स्वर ,

विरोध ठहर सा जाएगा

परंतु क्या मुझे इंसाफ मिल पाएगा

सर्वर मेरे तुम दल कुचल कर पीस ना

पाओगे

शायद तुम इंसानियत को यूं ना

ठुकराओगे।

         



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Tragedy