तेज़ाब
तेज़ाब


झुलसे हुए बदन को यूं नफ़रत
से ना देखो
तुम्हारी ही आग ना बुझाने का
नतीजा पाया है हमने।
क्या ग़लती थी मेरी कि
तुमने ये सजा दी मुझे।
माना तुम्हारा इज़हार था,
मेरा इंकार था।
हां था मेरा इंकार ,
तुम्हारी उस मोहब्बत से।
जो रूह के पोर-पोर को खोल
डाले,
आत्मा को झकझोर डाले।
अब जब मेरे नज़रों से नज़रें
मिलाओगे,
जिन नज़रों में अब दर्द है,
जिनकी पलकें अब राख है।
क्या फेर पाओगे अपनी उंगलियाँ
उन फफोलों पे।
हां शायद तुम कर लोगे,
तुम्हारी मोहब्बत सच्ची है ना।
तुम्हारे आग के अंगारें धधकती
तो होगी मन में।
अच्छा तो कैसा महसूस कर <
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रहे हो अब,
गौरवान्वित, मर्दाना या बल से
परिपूर्ण।
तो अब सुनो मेरी,
तुम्हें पता है?
कि मुझे मालूम है तुम्हारे इस
मोहब्बत का फ़साना।
मुझे नहीं अपने मर्दानगी को
जलाया है तुमने।
अपना वहशियाना अंदाज़
दिखाया है तुमने।
ये मत समझना की टूट गई हूं ,
देख फिर से ज़माने को बदल रही हूं।
पर तू ये बोल की क्या पाया है तुमने।
झूलसे हुए बदन को यूं नफ़रत
से ना देखो,
तुम्हारी ही आग ना बुझाने का
नतीजा पाया है हमने।
समाज की वास्तविकता
आज रावण जलाते है
कल सीता को जलाएंगे