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कठपुतलियां

कठपुतलियां

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नाच रही थी

कठपुतलियां

‌‌‌‌‌रंग बिरंगे वस्त्रों में

कर रही 'ठिठोली'

खिलखिला रहीं

‌ हंसा रहीं थीं जनता को


खत्म खेल हुआ

जा बैठी सब बक्से में

था‌ माहौल निशब्द

सुनी एक सिसकारी


पूछ बैठी कठपुतलियां

क्यों ? बोल री करता हुआ ?

किसने दिल तेरा दुखाया

तब -- बोल उठी कठपुतली


टीस सी उठती कलेजे़ में

दे जाती है एक दर्दीली छुवन

मन व्याकुल कर मेरा वो

चाहती है आजादी


आखीर हुआ क्या ?

बोली कठपुतली

हमारे लिये निशब्द प्रकृति

निशब्द ही है अहसास

पिज़रे में कैद

निशब्द हम

मौन' प्रकृति '

मौन जुंबा हमारी

काश !

‌होती जुंबा हमारी तो

कहते अपने मन की


नाट्य, नृत्य, हमारे

मनभावन, मनोरंजक

पर त्याग हमारा!

पिघलकर भी हम

‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌खुश करते सबको


‌‌‌जीने की चाह है

इंसा बन

कहीं आशियाना तो होगा

जहां मिले जीवन


हम तो पतंग हैं

डोर किसी ओर के साथ

अगर अनाड़ी नचाने वाला

जा गिरेगे धूल में


दिल के किसी कोने में

नटखट मेरा मन

उढ़ना चाहता है

उन्मुक्त हो

कठपुतली हूं तो क्या ?


खामोशियां सुनाई दें तो

सुनों मेरा दर्द

टूट जायेंगे

सुन दास्तान मेरी


नहीं नाचना मुझे

ईशारों पर किसी के

नहीं बंधना

धागों ‌‌‌‌की जंजीरों में

‌। मेरी घुटन भरी आवाज

सुनेगा कोई ?

प्रथा पुरानी है

शिव ने चलाई

‌ ‌ परम्परा कठपुतली की

विकसित हो रहीं

हम घुट रहीं --


हम माध्यम हैं

नई योजनाओं' के प्रसारण का

लोककलाएं,दर्शाती

लेखन, दहेज, शिक्षा

बालविवाह, बलात्कार

पौराणिक कथाओं को


हम उन्हीं

‌‌‌प्रताड़ित नारी, सम्राटों के समान

जिनकी जीवन डोर

‌किसी ओर के हाथ हो

जिनका कोई व्यक्तित्व नहीं

पहचान नहीं, सोच नहीं

बेबस हो‌


हम सृजनशीला बनें

कर्मशीला बनें

आधारशिला बन

कभी कालबने

हर आंगन का श्रृंगार

चहक उठी


उसकी कठपुतलियां

‌‌‌हमारा भी मन है

उफनते शब्द हैं

भावनाओं का ज्वार है

‌‌‌ ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌फूटे कैसे ?

हम कठपुतलियां हैं

निशब्द।


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