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Shrishty mishra

Abstract

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Shrishty mishra

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कश्मकश

कश्मकश

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किसे मनाऊँ किसे छोड़ दूं

रोऊँ चुपचाप अकेले या खुद को नया मोड दूं

किस्सा बन जाऊँ जमाने में या दुनिया ही छोड़ दूं

आज गुमनाम सी जिंदगी भी गुमसुम हो चली है

मतलबी रिश्तों में फसी रहूं या रिश्ता ही तोड़ दूं

कहो किसे मनाऊँ किसे छोड़ दूं!


नाते जो जोड़ रखे थे तकलीफ देने लगे हैं 

सोचती हूं सब मोह समझ कर खुदसे रिश्ता जोड़ दूं

करीब रहते है सब मगर बात समझते नहीं

मेरे अंदर के अनकहे जज्बात समझते नहीं

नहीं मै गलत नहीं हूं मुझे गलत ना समझो

इतने इल्जाम ना लगाओ कहीं मै दम ही ना तोड़ दूं

किसे मनाऊँ किसे छोड़ दूं!


रूठते जा रहे है सब वजह से मै अंजान हूं

कोई नहीं ऐसा जो कहे मै उसकी जान हूं

यहां सगा जो है वो भी मतलबी बन बैठा है

फिर तो गैरो के दिए दर्द क्यू ना शौख से ओढ लू

कहो ना किसे मनाऊँ किसे छोड़ दूं!


नहीं हो रहा सफर तय मुझसे इन बंदिशों के साथ

रिश्तों की बंधी डोर से दम घुटने लगा है

उड़ जाऊँं आसमान में इन जंजीरों को तोड़ दूं

ग़म को भुलाकर खुशियों पे ध्यान दूं

बोलो तो सही किसे मनाऊँ किसे छोड़ दूं!


शिकायत सबको है मुझसे मै मेरी शिकायत किससे करूं

बेरंग सी दुनिया में किराए रंग कैसे भरू

तन्हाई का आलम और नासमझ से लोग ऐसा समझ लीजिएगा

पूछना मुझसे हाल मेरा कहीं मै रो ना दूं 

बोलो तो सही किसे मनाऊँ किसे छोड़ दूं!



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