कृषक हुंकार
कृषक हुंकार
है किसान वह जीवन धारा, जिससे स्वयं विधाता हारा,
धरती की छाती चीर-चीर कर, राष्ट्र की भूख मिटाता।
युग-युग कहता उसकी कहानी, कभी न बूढ़ी हो कृषक जवानी।।
किसान जब-जब भरता हुंकार, शासन थर्राता थर-थर,
गौरे अंग्रेजों का चला न बस, काले अंग्रेजों क्या औकात तुम्हारी।
हर जोर जुल्म-अत्याचार सहकर, हक लेगा अब लड़कर।।
मिट्टी को स्वर्ण बना देता, आतंकी सिंहासन की जड़ें हिला देता,
स्वयं भूखा रहकर किसान, सारे जग की भूख मिटा देता।
जब-जब जागी चेतना कृषक मजदूरों की, मशाल जल उठी क्रांति की।।
सुभाष, भगत, बिस्मिल के वंशज, सदा बचाते मानवता की लाज,
डायर की गोली खाने वाले, अब अपनों की हंसते-हंसते खा जायेंगे।
पर पूंजीपतियों के गुलाम नहीं बनेंगे, अंतिम सांस तक लड़ेंगे ।।
जब तक राज रहेगा पूंजीपतियों का भारत की संसद पर
1947 ई. वाली आजादी आधी-अधूरी है, आगे और लड़ाई है।
मांग रही धरती कुर्बानी, चल उठ संग्राम कर कृषक जवानी।।
खेतों की यौवनता, बूढ़े संसद की चूल्हे हिला रही है,
देखो झूठे-मक्कार शासन को, बंदूकों की नोकों पर डरा रहा है।
मुट्ठी बांध हाथ उठाओ अपने, पूरे होंगे भारत तेरे सपने।।