कर्म-दीप
कर्म-दीप
घना निविड़ अंधकार...
भयंकर तूफान...
चहुँ ओर घटाघोप...
हाथ को हाथ न था सूझता...
कहाँ जाएँ...?
कोई पथ नहीं...
आशा की .....
नन्ही किरण तक नहीं....
चहुँ दिश हा हा कार.....
हा ! प्रचंड तूफान.....
सहसा.....
उम्मीद की
धीमी आहट सा....
दू.......र
दूर.....टिमटिमाता वो नन्हा दीप
विकराल तूफान में
मानो नवजीवन का
संदेश था........
तूफान धारण किये
भयावह रूप
कर्म-दीप बुझाने हेतु
कटिबद्ध सा
चला आ रहा था......
बढ़ा आ रहा था......
और.......उधर..........
फल की इच्छा से
अनभिज्ञ दीप
कर्म के ज्वलंत रूप सा
मानव-पथ आलोकित
कर रहा था......
तूफान अपनी कामना
दिल ही में लिए
हो गया विलीन
उसी अंधकार में
बिखेर रहा था नन्हा दीप
अभी भी......
अपने सुनहले कर्म की
निर्मल रश्मियाँ..............