कितनी बार
कितनी बार
कितनी बार तुम मुझे
मिट्टी में दबाओगे...?
दबा-दबा कर हार जाओगे
जानते नहीं बीज हूँ मैं...
माना कि पल भर को
भू-उर में सो जाऊँगा
फिर उग आने की फितरत है मेरी
जितनी बार दबाओगे
धरा का सीना चीर उग आऊँगा
हवा के झोंकों संग इठलाऊँगा
नाकामी पर तुम्हारी
फिर एक बार ठेंगा दिखलाऊँगा.....।।
कितने पाषाण मेरी राहों में
तुम बिछाओगे......?
बिछा-बिछा कर हार जाओगे
जानते नहीं धारा हूँ मैं...
माना कि
पल भर के लिए ठिठक जाऊँगी
राहें तलाश लेने की
फितरत है मेरी
जितने रोड़े अटकाओगे
फिर खोज लूँगी राह नयी
सागर से गले मिल
गीत मिलन के गाऊँगी
नाकामी पर तुम्हारी
फिर एक बार जीभ चिढ़ाऊँगी.....।।
कितने तिमिर-अरण्य
पथ पर मेरे तुम लगाओगे....?
लगा-लगा कर हार जाओगे
जानते नहीं दिनकर हूँ मैं...
माना कि एक बार
अस्त हो जाऊँगा
पुनः उदित होने की फितरत है मेरी
जितने अरण्य लगाओगे
फिर से उदय हो
नभ में मुस्कुराऊँगा
जग को नयी ऊर्जा
नयी उम्मीद दे जाऊँगा
नन्ही चिरैया संग चहचहाऊँगा
नाकामी पर तुम्हारी
फिर एक बार अँगूठा दिखलाऊँगा.....।।
