कोई पनाह दे
कोई पनाह दे
हल्की करवट पर नींद खुलते ही
तुम्हारे वादों का मौसम ढूँढती
नंगे पैर चाँद की सैर पर निकल जाती हूँ..
खामोश पगडंडियों पर दर्द की खलाएं चुभती हैं
एक झोंका नश्तर का सीने में उठता पहुँचा देता है
दुधिया रोशनी का नुक्ता लगाए बैठी रोशन रात के दामन में..
अश्कों से बोझिल आँखें लिए बैरागन सी मैं तलाशती हूँ तुम्हें
मेले में जैसे कोई गुम हुआ बच्चा अपनी माँ को ढूँढता है..
मेरी अमावस का दर्द रात समझती नहीं आज उसका चाँद उसकी आगोश में है पूर्णिमा जो है..
कोई कहकशाँ मेरी जुस्तजू संवारती नहीं
बौनी हसरतों की कोई हद नहीं
लिपटी हूँ यादों के भँवर से..
कोई आकर पास बिठाकर पूछे तो सही पलकों की दहलीज़ पर कुछ चुभती बूँदें गिरा लूँ गर कोई पनाह दे।
