कलम
कलम
ढुलमुल ढुलमुल
चलती जाती,
कभी स्वयं पर
ना इतराती,
कोरा कागज़, उसका मांझी
उसे जगत से क्या लेना।
जिसके हाथों में रहती है
उसकी ही बन जाती है,
उसका जीवन है अविनाशी
उसे जगत से क्या लेना।।
वो पतझड़ में
पुष्प खिलाती,
रौरव दुःख में
वो मुस्काती,
मूकों की, भाषा बन जाना
उसकी बड़ी पुरानी आदत,
जिन आंखों से बहती है
उनमें ही बस जाती है।
उसका यौवन चिर स्थायी
उसे समय से क्या लेना।।
कभी अंकनी
कभी तूलिका,
कभी समसि
कहलाती है,
नए नए शब्द रचती है
उनको ही सहलाती है,
शब्दों में उसका परिचय है
उसे नाम से क्या लेना।
उसकी स्याही, उसकी बाती
उसे रूप से क्या लेना।।
शशि को निशि
में उषा दिखाती,
वो दिनकर को
निशा दिखाती,
जीवन और मृत्यु के रथ की
दिशा बदलती जाती है,
उसकी सीमाएं अनन्त हैं
उसे दिशा से क्या लेना।
सुख और दुःख उसके अधीन हैं
उसे विषय से क्या लेना।।
मेघों से
अग्नि बरसाती,
कभी किसी से
ना घबराती,
विद्युत सी जब
वो चल जाती,
तिहुनों से पावक
बरसाती।
मेघ और अंबुज, उसके साथी
उसे ऋतु से क्या लेना।।