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Sandeep Panwar

Romance

3  

Sandeep Panwar

Romance

कितनी खुदगर्ज हो तुम

कितनी खुदगर्ज हो तुम

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कितनी खुदगर्ज हो तुम

और रात भी कितनी दोगली है 

अपने साथ तुम्हारी आहट

भी साथ लाती है,


और कमबख्त ये जज्बात 

जो नींद में भी सिर्फ तुम्हारा 

ही जिक्र करते हैं,


पर कितनी खुदगर्ज हो तुम 

मैं सोचता हूं तुम्हे ले चलूँ

उन प्यार भरी वादियों में

जहा सिर्फ हम हो,


पर तुम रोज मेरे ख्वाबो में 

आती हो

मेरी आँखों में खुदको 

देख कर मुस्कुराती हो

चली जाती हो 


कितनी खुदगर्ज हो तुम

एक लम्हा भी आंखों में

नहीं टिकती।


अब तो एक खुवाहिश है 

की एक दिन तुम्हें छूँ सकूँ,

मेरे ख्वाबों में ही सही 

पर तुम्हें छूँ सकूँ,


याद है वो कहानियां 

जो बिखरी हुई थी रास्ते 

के पत्थरो की तरहा,

पता नहीं तुम कब मेरे,

 

जज्बातों के घड़े में 

वो पत्थर मार कर मेरे 

जज्बातों को रोज बहने देती हो

कितनी खुदगर्ज हो तुम।

 

तुम्हे भूलाने का एक मौका 

भी नही देती,

तुम बदलते मौसम के साथ 

मेरे जज्बातों को जलती हो,


भीगाती हो,जमती हो फिर 

आपनी आहट के गर्म झोंके से 

मेरे जज्बातों को फिर से उगती हो

कितनी खुदगर्ज हो तुम।


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