कितना दुखी किसान है
कितना दुखी किसान है
सूना जिसका चौका चुल्हा, सूना ही खलिहान है।
पेट सभी का भरने वाला कितना दुखी किसान है।।
हरितक्रांति के आराधक की बस इतनी ही चाहत है।
रोटी कपड़ा और मकां हो, जिसकी उसे जरूरत है।।
लेकिन कैसा वक्त आ गया, छीन गई सिर से छत है।
विवश आत्महत्या को है वो, कितनी पतली हालत है।।
बच्चे दर दर भटक रहे हैं, दिखता नहीं निदान है।
पेट सभी का भरने वाला कितना दुखी किसान है।।
भले अन्नदाता कहलाये, देखो बना भिखारी है।
बेकारी का राज अनवरत, पड़ी मुसीबत भारी है।।
ख़्वाब हुई है सुख सुविधाएँ, जीवन में लाचारी है।
छाले पड़े हुए कदमों में, शासक अत्याचारी है।।
तार तार तन के कपड़े ये, दाता का परिधान है।
पेट सभी का भरने वाला कितना दुखी किसान है।।
फँसा हुआ है गले गले तक, कर्जे में वो रोता है।
कोई साहूकार हो दुश्मन, बस किसान का होता है।।
ब्याज अदा करने में ही वो, सारी ताकत खोता है।
उसे नोचने वाला तो कर, गंगाजल से धोता है ।।
भूमिपुत्र की किस्मत में तो, बस करना विषपान है।
पेट सभी का भरने वाला कितना दुखी किसान है।।
हमने उसको रात रात भर, करें सिंचाई देखा है।
गले न फसलें उसे खोदते, हमने खाई देखा है ।।
क्या कीमत उसने फसलों कीअपनी पाई देखा है।
जो कहते, क्या करते उनको, कभी भलाई देखा है।।
रीढ़ देश की बना हुआ है, भारत की पहचान है।
पेट सभी का भरने वाला कितना दुखी किसान है।।
जिस धूरी पे धरती घूमें वही हुई कमजोर अगर ।
क्या रह पायेगी ये दुनिया, चैन रहेगा क्या भू पर।।
निर्बल देश रहेगा पूरा, सबल नहीं जबतक हलधर।
खुशहाली कैसे ओंढ़ेगे, तुम्हीं बताओ गाँव शहर ।।
हलधर के कष्टों का तुम को क्या "अनन्त"अनुमान है।
पेट सभी का भरने वाला कितना दुखी किसान है।।