किसान
किसान
हे अन्नदाता तुम्हें शत-शत मेरा प्रणाम
भेद धरा का सीना पैदा करते हो धान
कृषिप्रधान देश के तुम रीढ़ रहे महान
फिर हम सब कैसे इतने बेगाने अंजान
सभी सेंक रहे राजनीति स्वार्थ की रोटी
रहे साहूकार नोंच उनके तन की बोटी दे
नारा जग में जय जवान-जय किसान
फिर क्यों न सत्ता सम्राटों को रहे ध्यान
भुखमरी से कर पलायन खोजें मुकाम
हार संघर्षों से,आत्महत्या को,दें अंजाम
शिक्षा के अभाव में नहीं जीवन आसान
चकाचौंध में भूल रहा खुद की पहचान
कभी नहीं मिला मेहनत का प्रतिदाम
गंवइ देशी ,लगा ठप्पा करते बदनाम
सदा बिचौलिये से होता रहता परेशान
ओला सूखा बारिश पाला लेते हैं जान।