किन्नर
किन्नर
ना मैं स्त्री हूं, ना मैं पुरुष
दोनों के बीच भटकता जीवन हूँ मैं।
अपने अस्तित्व को लेकर असमंजस में हूँ मैं,
मेरी उपस्थति ना मेरे परिवार को स्वीकार्य है ना समाज को।
दुनिया की नज़रों में सिर्फ ताली बजाने वाला एक किन्नर हूँ मैं।
माना मेरा लिंग समाज के शब्दकोष में तिरस्कृत है,
लेकिन मेरे लिंग के अलावा भी तो मेरा एक अस्तित्व है।
मेरा शरीर चाहे भिन्न है,
किंतु ह्रदय और मस्तिष्क तो आम इंसानों जैसा ही है।
यूँ तो मैं दिन मैं उपहास का कारण बनता हूँ,
लेकिन रात में, कहीं ना कहीं समाज की एक विकृत मानसिकता को भी उजागर करता हूँ।
हाँ मैं किन्नर हूँ, क्योंकि इंसान बनने का मौका मुझे दिया ही नहीं गया।
मेरे लिंग से मेरी क्षमताओं को तोला गया,
मेरी सोच, मेरे विचारों को कभी पनपने ही नहीं दिया।
ना परिवार मिला, ना शिक्षा और रोजगार का अवसर
मुझे किसी भी स्तर पर स्वीकृत ही नहीं किया गया।
किन्नर की छाप लगाकर छोड़ दिया गया सड़कों पर,
ताली बजाकर भीख मांगने के लिए,
कभी शादियों में नाच-नाचकर बधाई मांगने के लिए।
मेरी दुआओं के लिए तरसते हो,मेरी बद्दुआओं से डरते हो,
दिन में मैं सिर्फ उपहास का पात्र हूँ तुम्हारे लिये,
रात होते ही भूल जाते हो किन्नर हूँ मैं,
मुझे भोग की वस्तु समझते हो।
कितने तुच्छ हो तुम सब,
व्यक्ति के लिंग से उसकी सोच, उसके अस्तित्व को परिभाषित करते हो।
देश बदलने की बातें करते हो और एक किन्नर को स्वीकार करने से डरते हो।
अगर मैं किन्नर ना होता तो मुमकिन है,
मैं भी तुम्हारी तरह डॉक्टर या इंजीनियर होता।
लिंग शरीर का होता है , प्रतिभा का नहीं।
कातिल हो तुम सब मेरे सपनों के, मेरी तमाम ख्वाहिशों के,
तुम सबने एक जीते जागते इंसान को ताली बजाने वाला किन्नर बनाकर रख दिया।