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शालिनी गुप्ता "प्रेमकमल"

Abstract

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शालिनी गुप्ता "प्रेमकमल"

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ख्वाहिशें

ख्वाहिशें

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बहुत अधूरे ख्वाब है, ख्वाहिशें है,

सहलाती रहती हूँ, थपकियाँ देकर,

कोशिशें करती हूँ, उन्हें सुलाने की,

जैसे ही करती हूँ मैं, बंद आँखों को,

पर ख्वाहिशों की आदत बड़ी बुरी है,

रतजगा कर, ख्वाबों में तैर जाने की,

ताकत तो बहुत है, हौसलों में मगर,

पर आदत नहीं है, उन्हें आजमाने की,

ख्वाबों और ख्वाहिशों को अपनी हम,

पूरा कर सकते हैं मगर, आदत नहीं है

मुझे, किसी के अहम से टकराने की,

वो हराकर मुझे, बड़े खुश हो रहे है,

शायद उन्हें ये पता ही नहीं है, कि मैंने

अपनी आदत बना ली है, हार जाने की,

कर सकती हूँ, हसरतें पूरी मैं अपनी,

बहुत ही आसान है, ये मेरे लिए मगर, पर

आदत पड़ी है, मुश्किलों से जूझ जाने की,

बचपन से सीखा था उन्होंने हक बताना,

और हमने सीखा था, मकाँ को घर बनाना,

तो बस, वो हक जताते रहे जिंदगी भर मुझे,

और मैंने आदत बना ली, ख्वाहिशें भुलाने की,



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