Sunita Shukla

Abstract

4.5  

Sunita Shukla

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ख़ुशनुमा वक्त

ख़ुशनुमा वक्त

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बहुत याद आती है उस गुज़रे खुशनुमा वक्त की, 

जब ज़िन्दगी रोशन हुआ करती थी ।

ज़िन्दादिल दोस्तों के ठहाकेे हुआ करते थे, 

अपनों का साथ और खुशियाँ हजार हुआ करती थीं।।


कुछ पल के लिए हम भूल जाते थे अपने गम, 

और हँस लेते थे दिन में कई बार ।

मुसीबतें तब भी थीं और गमों की भी थी भरमार,

पर उबर जाते थे जब साथ होते थे दोस्त यार।।


अब तो बिगड़ी हवाओं की रंगत है, 

अच्छी नहीं अब किसी की संंगत है ।

वक़्त बदला और बदलता गया,

बदलता वक़्त बहुत कुछ सिखाता गया ।।


अपनों की ज़रूरत और मन की हिम्मत, 

नित नये अनुभव और जान की कीमत ।

और सिखाया कैसे अपनी जान है बचाना, 

समझा ये जिसने वही हुआ सयाना।।


मुँँह को ढकना और हाथों को धोना हुआ ज़रूरी, 

होशियार वही जिसने थामी दो गज़ की दूरी ।

हर वक्त दौड़ना ही मुनासिब नहीं, 

थोड़ा ठहर के भी है ज़िन्दगी ।। 


माना वक्त का नहीं कोई ठौर न ठिकाना 

हर घड़ी़ हर पल फिरता ये मारा मारा ।

फिर भी सब कुछ छोड़ के सुुुध लेअपनी,

चैन- ओ-सुकून की धर ले गठरी ।।


तुम लौट आना ए मेरे गुज़रे हसीं वक्त, 

भर देन फिर वही शोख़ी,

हो जायें काफूर सारी उलझनें

और ज़िन्दगी गुलज़ार हो, फिर एक बार ।।


            



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