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खुशियों का मेला

खुशियों का मेला

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पास ख़ुशियों का जिसके है मेला नहीं,

इस जहां में तू ऐसा अकेला नहीं....


गर्दिशों का अंधेरा चहूँ ओर है।

उलझी उलझी हुई सांस की डोर है।

डूब सूरज गया तो हुआ क्या अभी,

फिर तो होनी सुहानी नई भोर है।

कौन ऐसा हुआ है जमी पर भला ,

साथ जिसके समय खेल खेला नहीं।।


सज रहा वेदनाओं का बाजार है।

आदमी मुस्कराने से लाचार है।

भाग्य तेरा, तुम्हें जो मयस्सर है छत,

रास्ते पर बसा एक संसार है।

कौन फिर सिसकियाँ सुन सके दीन की,

पास जिनके दिखाने को धेला नहीं।।


नाव मझधार में, मंज़िलें दूर हैं।

मुश्किलें सामने आज भरपूर हैं।

हार कर बैठ जाना नहीं ठीक है,

नित्य बढ़ता रहे जो, वही शूर है।

लक्ष्य उसको कभी भी मिला ही नहीं,

राह के पत्थरों को ढकेला नहीं।


गिर पड़े हो अगर तो नहीं हार है।

जूझना बिघ्न से ध्येय है, सार है।

जिंदगी के बगीचे में होता सदा, 

है खिज़ा बाद में किन्तु रसधार है।

कब वो पाषाण राहों का पूजा गया,

वार जिसने हथौड़े का झेला नहीं... 

इस जहाँ में तू ऐसा अकेला नहीं...

   


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