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खुद का अस्तित्व खोजती हिंदी

खुद का अस्तित्व खोजती हिंदी

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सुंदर सरल है जो,

अविरल अचल है जो,

वाक्य में मर्म है जो,

वाच्य में सुगम है जो,

सत्य जिसमें परिलक्षित है,

देश का भविष्य जिसमें रक्षित है,

संस्कृत के दिन भाषा है,

जो नव भारत की आशा है जो।

जाने कहाँ वो हिंदी अब सो रही है ।।


युगों से चली आ रही,

युगों तक तुझे चलनाा है,

युगों से पली आ रही,

युगों तक तुझे पलना है,

देश की संस्कृति बचाने को,

अब खुद ही तुझे संभलना है।


नव भारत की निर्माता है,

युग-युगांतर से जिससे नाता है,

जानेे कहाँ वो हिंदी खुद का,

अस्तित्व खो रही है ।।


धन्य है वह भारत-भूमि,

उसके वासी हैं धनवान ,

जहां तुझ जीवनदायिनी को,

प्राप्त राष्ट्रभाषा का सम्मान,

किंतु अब वही देश,

तुझसे नाता तोड़ रहा,

गैरों सेे नाता जोड़ रहा,

तुझ बिन देश ऐसा होगा,

जैसे बिन मां की संतान ।


अपने ही देश की दासी,

अपने ही घर में प्रवासी

जाने कहाँ वो हिंदी,

अब अदृश्य हो रही है,

खुद ही खुद में रो रही है,

फिर भी सपनों के बीज बो रही है।


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