कहता है कौन हिज्र मुझे सुब्ह
कहता है कौन हिज्र मुझे सुब्ह
कहता है कौन हिज्र मुझे सुब्ह ओ शाम हो
पर वस्ल में भी लुत्फ़ नहीं जो मुदाम हो।
शिकवा किया हो मेरे लब-ए-ज़ख़्म ने कभू
तो मुझ पे आब-ए-तेग़ इलाही हराम हो।
साहब तुम अपने मुँह को छुपाते हो मुझ से क्यों
है उस से क्या हिजाब जो अपना ग़ुलाम हो।
मुँह लगने से रक़ीब के अब सर चढ़े हैं सब
कर डाले उस को ज़ब्ह अभी इंतिज़ाम हो।
मत दर्द-ए-दिल को पूछ ब-क़ौल-ए-'फ़ुग़ाँ' 'बयाँ'
इक उम्र चाहिए मेरा क़िस्सा तमाम हो।।