खोखली नींव
खोखली नींव
मैं घर बना रही थी सपनों का,
अचानक एक आहट हुई...
मैंने घबराकर पीछे देखा तो वो तुम ही थे,
के जैसे दिल को कोई राहत हुई।
ख्याल आया तुम्हें भी शामिल करूँ
आखिर घर की बुनियाद तो तुम ही थे...
जहाँ से सपनों की शुरुआत हुई थी,
आखिर वो मीठी याद तो तुम ही थे।
मैंने पूछ ही लिया -
ज़रा बताओ तो,
किस झरोखे से हम
चाँद की चांदनी को निहारेंगे !
किस बालकनी में बैठकर
गरम चाय की चुस्कियों के साथ
चंद लम्हें गुजरेंगे !
अच्छा बताओ ना,
किस रंग की दीवार पर
तुम मेरी और तुम्हारी
वो तस्वीर देखना चाहोगे,
जिसे देखते ही तुम
मुस्कुराने लगते हो,
और फिर “मान साहब” के गानों को
गुनगुनाने लगते हो....
बोलो ना....
और हाँ !
तुम्हारी वो कंप्यूटर वाली टेबल
अब पुरानी हो गयी है !
याद है एक बार मैंने
उस पर स्टिकर चिपका दिया था....
और तुमने मुझे बहुत डाँटा था........ हा...हा...हा...
वो अब हम नयी लेकर आएंगे
नए सिरे से अपने इस घर को सजायेंगे।
तभी ......
रसोई घर से कुछ आवाज आयी
मैं दौड़ी !
आँच पर रखा दूध जो मैं भूल गयी थी,
उफन कर बह रहा था,
और उसी के साथ मैं अपने
इस बहते हुए सपने को देख रही थी।
आँखे नम हो गयी
और दिल ने मुस्कुरा कर कहा -
आज फिर से तुमने सपनों का
एक महल खड़ा कर लिया था
जिसकी नींव तुम्हारे
एक सपने पर टिकी थी...!
