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Anurag Negi

Abstract

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Anurag Negi

Abstract

कहीं मैं

कहीं मैं

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पूछा जब खुद से कुछ कभी, मेरा जमीर मुझसे कहता है,

मुड़कर देख कर्मों को अपने, क्या कभी कुछ अच्छा किया ?


कर्म के भरोसे आगे बढ़ा हूँ, क़िस्मत की लकीरें गवाह हैं,

छांकू जब जज्बातो में अपने, कहीं मैं रुक तो नहीं गया ?


जज्बातों में जान है गहरी, सपनों की वो मंजिल है,

रास्तों की भरमार है फैली, कहीं मैं खो तो नहीं गया ?


लंबे हैं ये जीवन के रास्ते, उतार-चढ़ाव का संगम है,

मंजिल पर पर्दा हैं दिखता, कहीं मैं थक तो नहीं गया ?


पर्दा अब थोड़ा धुँधला हुआ है, अंधेरे का भी शोर है फैला,

डरावने हैं यह काले बादल, कहीं मैं हार तो नहीं गया ?


चलना थोड़ा मुश्किल है पहले, अब कदमों को उठाना है,

फिस्लन भरी हैं इन रास्तो में, कहीं मैं गिर तो नहीं गया ?


जीत अब नजदीक है मेरे, जिम्मेदारियों का भी बोझ बढ़ा है,

अब बस मंजिल को है पाना, कहीं मैं मर तो नहीं गया ?


हिम्मत अभी बाकी है दिल में, अब मंजिल को भी पा लिया,

वजूद अभी ज़िंदा है मेरा, हाँ अब मैं जीत गया।


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