STORYMIRROR

Anurag Negi

Abstract

4  

Anurag Negi

Abstract

कहीं मैं

कहीं मैं

1 min
381

पूछा जब खुद से कुछ कभी, मेरा जमीर मुझसे कहता है,

मुड़कर देख कर्मों को अपने, क्या कभी कुछ अच्छा किया ?


कर्म के भरोसे आगे बढ़ा हूँ, क़िस्मत की लकीरें गवाह हैं,

छांकू जब जज्बातो में अपने, कहीं मैं रुक तो नहीं गया ?


जज्बातों में जान है गहरी, सपनों की वो मंजिल है,

रास्तों की भरमार है फैली, कहीं मैं खो तो नहीं गया ?


लंबे हैं ये जीवन के रास्ते, उतार-चढ़ाव का संगम है,

मंजिल पर पर्दा हैं दिखता, कहीं मैं थक तो नहीं गया ?


पर्दा अब थोड़ा धुँधला हुआ है, अंधेरे का भी शोर है फैला,

डरावने हैं यह काले बादल, कहीं मैं हार तो नहीं गया ?


चलना थोड़ा मुश्किल है पहले, अब कदमों को उठाना है,

फिस्लन भरी हैं इन रास्तो में, कहीं मैं गिर तो नहीं गया ?


जीत अब नजदीक है मेरे, जिम्मेदारियों का भी बोझ बढ़ा है,

अब बस मंजिल को है पाना, कहीं मैं मर तो नहीं गया ?


हिम्मत अभी बाकी है दिल में, अब मंजिल को भी पा लिया,

वजूद अभी ज़िंदा है मेरा, हाँ अब मैं जीत गया।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract