कहीं मैं
कहीं मैं
पूछा जब खुद से कुछ कभी, मेरा जमीर मुझसे कहता है,
मुड़कर देख कर्मों को अपने, क्या कभी कुछ अच्छा किया ?
कर्म के भरोसे आगे बढ़ा हूँ, क़िस्मत की लकीरें गवाह हैं,
छांकू जब जज्बातो में अपने, कहीं मैं रुक तो नहीं गया ?
जज्बातों में जान है गहरी, सपनों की वो मंजिल है,
रास्तों की भरमार है फैली, कहीं मैं खो तो नहीं गया ?
लंबे हैं ये जीवन के रास्ते, उतार-चढ़ाव का संगम है,
मंजिल पर पर्दा हैं दिखता, कहीं मैं थक तो नहीं गया ?
पर्दा अब थोड़ा धुँधला हुआ है, अंधेरे का भी शोर है फैला,
डरावने हैं यह काले बादल, कहीं मैं हार तो नहीं गया ?
चलना थोड़ा मुश्किल है पहले, अब कदमों को उठाना है,
फिस्लन भरी हैं इन रास्तो में, कहीं मैं गिर तो नहीं गया ?
जीत अब नजदीक है मेरे, जिम्मेदारियों का भी बोझ बढ़ा है,
अब बस मंजिल को है पाना, कहीं मैं मर तो नहीं गया ?
हिम्मत अभी बाकी है दिल में, अब मंजिल को भी पा लिया,
वजूद अभी ज़िंदा है मेरा, हाँ अब मैं जीत गया।
