ख़्वाहिश
ख़्वाहिश
ख्वाहिशें बनी सौतन मेरी।
ना नींद ना कही चैन मुझे।।
जो मिला उसी से गिला हर दम।
जो पास नही उसकी आस करे।।
नित नई ख्वाहिशें करता मेरा मन।
क्यों ना ये दुनियां की परवाह करें।।
अंदर ही अंदर टूटती बिखरती ख्वाहिशें मेरी।
कोई क्यों ना इस दिल का आभास करे।।
जब तक जीवन है मन भागे इधर उधर।
क्यों ना हरि भजन में हरि को याद करें।।
मन के इस मक्कड़ जाल में उलझा रहता हरदम।
जो जीवन नैय्या पार लगाए उसका ही तिरस्कार करें।।
अनगिनत,असिमित है ख्वाहिशों की डगर।
रे मन! तू चल अब कान्हा के नगर।।
भूल बैठा जो तू अपना धर्म- कर्म जग की रीति।
बोल भला फिर कैसे होगी भगवान से प्रीति।।
बनी है सौतन लालच, छल, निश्छल पर दांव लगा।
आज हर अच्छाई पर बुरी ख्वाहिशों का भार लगा।।
हे कान्हा! अब मोह माया सब दूर करो प्रभु।
बनी जो अनन्त ख्वाहिशें मेरी सौतन तुम पर एकाग्र करों।।
ना भोग विलास ना असंतोष व्याप्त बस ईश का ध्यान करूं।
करो कृपा हे कृपानिधान इस सौतन को दूर करों।।
ले लो शरण मे अपनें प्रभु अब मेरा जीवन धन्य करो।
मैं हूं निपट अनाड़ी माधव मुझमें कुछ ज्ञान भरो।।
निः स्वार्थ हो भावना तेरे सिवा ना हो कुछ कामना।
हे इष्ट ! पालनहार प्रभु जग के हर संताप दूर करों।।