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ख़ूबसूरत पाँव

ख़ूबसूरत पाँव

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चंद साँसों के ये हालात,

कभी दिलों में कभी पन्नों पर,

लिख़ते जाते हैं,

अपने अफ़सुर्दा दिली की शिक़ायत।


कभी लगता है की पाँव मिट्टि पर,

कभी मिट्टी पाँव पर पड़ती जाती है,

धुल जाते हैं वह काटों के घाव,

जो गिर जाती हैं शबनम की बूंदे।


और चमक उठती है हँसी,

सोच के काले बादलों से,

इन पाँव ने क्या नहीं देखा,

बाबू के दफ्तर की मिट्टी।


नेताओं के रैली की गर्दी,

ट्रक के डीजल में सनी धूल,

बिज़नेसमैन के गार्डन की,

मखमली घास भी देखी है।


कलकलाती नदी जो काटती है,

विशाल चट्टानों का सीना,

उन पत्थर के सीनों पर भी,

इन पाँव ने निशान छोड़ें हैं।


खाली ट्रकों के टीनों के,

ठंडे गरम बदन भी इन पाँव ने,

बेज़ार हो कर सहे हैं,

कब्रिस्तानों के वह सफ़ेद ईटें।


जो बारिश में हरी,

और ख़ुशहाल होती है,

मगर उसी तरह ठोकर देती है,

मानो वह लोग अभी ज़िंदा हों,

इन पाँव नें उन,

ठोकरों को भी सहा है।


और महसूस किया है,

उस ठन्डे समंदर की,

नमक भरी गरम रेत को,

जैसे ठंडी आहें गरम,

दिल से नमकीन आसुओं,

को बहा ले जाती हैं।


विदेशी स्टशनों की स्याह काली रात,

और रूखे कंक्रीट के प्लेटफार्म,

जो उनके दिलो की तरह ठंडे थे,

विधवाओं के कोमल बाल।


और उनके सफ़ेद आँचल,

जो इन पैरों तले,

मदद की गुहार लगाते थे,

इन रूखे बिवाई भरे पैरों पर।


किसी शायर ने क़सीदा नहीं कहा,

सिर्फ इन्होंने महसूस किया है,

जलती चिता की जलन,

और सुना है,

"बापू तुम कहाँ चले गए",

की पुकार !


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