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PARMOD KUMAR

Tragedy

4  

PARMOD KUMAR

Tragedy

खेल(प्रपंच)

खेल(प्रपंच)

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वो फुदक-फुदक गौरैया का,मेरे आंगन ,में आना।

चहचहाना, वो शर्माना,अट्टा पे मेरे,फुदक जाना।।

पानी की भरी, कटोरी में,कलरव करके,यूँ मुस्काना।

न जानें,कहाँ,गये वो दिन,धूमिल है, नजरों में आना।।

न जानें कहाँ गये---

जब ले अवलंबन,कंधों का,नीड खंगाला,करते थे।

भान नहीं,हमको,था ये,ममता का हृदय,दुखाते थे।।

अंक में लेकर,चुपके से,हृदय से, उन्हें सहलाते थे।

ये देख नज़ारा, ममता की,आंखों मेंअश्रु,भरते थे।।

भान नहीं हमको---

रे मानव!क्या विकास हुआ? अपनों का हनन,किया हमनें।

प्रकृति की सुंदर,रचना को,निज स्वार्थ,अलोप किया हमनें।।

झमादान मिल जायेगा? ऐसे भयंकर कु-कृत्य का ।

कैसे-कैसे प्रपंच रचे,मानवता का हनन,किया हमनें।।

वो कलरव भ्रमित,सुना मैंने, इक गौरैया, मेरे अंगना ।

जब आंख खुली,देखा मैनें,था,वही पुराना, इक सपना ।।

 न जानें कहाँ-----न जानें कहाँ-----



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