कहाँ हूँ, कौन हूँ मैं
कहाँ हूँ, कौन हूँ मैं
कहाँ हूँ, कौन हूँ मैं
क्यूँ मद हवा सा डोल रहा
क्या कोई हवा का झोंका हूँ जो
क्यूँ हर नियम को तोड़ चला।।
क्या बहते जल की धारा हूँ
जिधर चले उस ओर मार्ग बना
कल-कल, छल-छल की आवाज कर
शुद्ध तन-मन को मैं करता चला।।
क्या खुला आकाश हूँ मैं
जो अनंत, असीम है
जीव जन्म का बीज है जो
छोर का जिसके नहीं पता।।
क्या असीमित सी भू-धरा हूँ मैं
सहनता की सीमा नहीं
हर कर्म के भार को सहती पर
ना उफ़्फ़ तक की आवाज मैं करती।।
क्या दया, धर्म और कर्म से
निष्क्रियता प्राप्त हुआ मैं
घात विश्वासघात कर
मानव धर्म को भुला चुका मानव हूँ मैं।।
क्यूँ स्वार्थ में इतना डूबा चुका
तारो तार कर हर रिश्ते नाते मैं
स्वार्थ पूर्ति कर खुशी मनाता
ये किस तरह का मानव हूँ मैं।।