ख़ामोशी
ख़ामोशी
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जब कोई मुझे सुनने वाला न मिले ,
शोर मचे दिल में और दरवाज़ा न खुले ,
तब उठाती हूं कलम और खोलती हूं मन की गिरहें ।
कहीं कुछ न कह पाती हूं जब कभी भी ,
किसी से बोलना जब घावों को नासूर बना देता है कहीं भी ,
तब कागज़ को समर्पित करती हूं मन की गिरहें।
लोगों से बिना किसी बात के क्या उलझें ,
वैसे ज़्यादा कहें भी तो क्या कहें ,
ख़ामोश इंसान के नाम से पहचान है,
अपनी बात आखिर कहां रखें ,
इसलिए कलम से खोलते हैं मन की गिरहें।